अपनेबचपन की किसी एक स्मतिृ को 'सचित्र-संवादात्मक शैली' में प्रस्ततु कीजिए।

Published on Slideshow
Static slideshow
Download PDF version
Download PDF version
Embed video
Share video
Ask about this video

Scene 1 (0s)

अपनेबचपन की किसी एक स्मतिृ को 'सचित्र-संवादात्मक शैली' में प्रस्ततु कीजिए।.

Scene 2 (1m 3s)

वह सब भीतर कहीं दब जाता और किस्सों-कहानियों के जरिए मेरी खुशी फिर ऊपर आ जाती. मतलब मैं वापस हंसने-मुस्कुराने लगती और खुली आंखों से सपने देखने लगती. बच्चों के लिए लिखी गई कहानियों की सबसे प्यारी बात होती है कि वो रास्ता दिखाती हैं, एक उम्मीद जगाती हैं. आपको इस बात का यकीन देती हैं कि एक दिन सब ठीक हो जाता है. बचपन में पढ़ी उन कहानियों ने ही मेरे भीतर जिंदगी से जुड़ा यकीन पैदा किया है. अब सोचती हूं कि वो किताबें न होतीं तो मैं कैसे खुद को बचाकर रख पाती. एक लुभावनी दुनिया पैदा करने के बावजूद बच्चों की कहानियां बहुत दिनों तक मुझे बांध कर नहीं रख पाईं. जब मैं पांचवीं में पहुंची तो चुपचाप से वो किताबें पढ़ने लगी जो पापा लाइब्रेरी से अपने लिए लाया करते थे. चुपचाप इसलिए कि मुझे वो किताबें पढ़ने की इजाज़त नहीं थी. इस तरह चोरी-छुपे मैंने उन किताबों को भी पढ़ना शुरू कर दिया जो बड़ों के लिए मानी जाती थीं. उन दिनों पापा प्रेमचंद या शरतचंद लाया करते थे, और भी तमाम लेखक जो अब तो मुझे याद भी नहीं. वो किताबें मेरी उम्र से बहुत ऊपर की थीं इसलिए उनमें लिखी बातें कभी समझ में आती थीं तो कभी ऊपर से निकल जातीं. लेकिन उनमें एक तिलस्म था, एक अलग तरह का जादू था जो बच्चों की कहानियों से बहुत गहरा था. सो मैं रात-रातभर जागकर वो किताबें पढ़ा करती. इन सब किताबों में परिवार, समाज और रिश्तों की वो जटिलताएं थीं, जो मेरे बाल-मन को उलझाकर रख देतीं थीं. मुझे लगता जैसे मेरी कहानी भी इन्हीं कहानियों जैसी है. लगता कि हर बच्चे की, हर वयस्क की ऐसी ही कोई कहानी होती होगी. तब से मैंने अपनी हर परेशानी को किताब का एक पन्ना मानकर देखना शुरू कर दिया. सोचती थी कि अगर जीवन में ये समस्या है तो इसका होना भी ज़रूरी है. ये न होगी तो कहानी उतनी दिलचस्प नहीं होगी. कभी-कभी ये भी सोचती थी कि जब मैं अपनी किताब लिखूंगी तो ये अनुभव बड़े काम आएंगे. किताबों से एक फायदा यह भी हुआ कि एक तरफ तो किताबों ने मेरे जीवन की अब तक बड़ी लगने वाली समस्याओं को मेरे लिए यूनिवर्सल और आम बना दिया था. वहीं दूसरी तरफ तमाम सवाल भी मेरे मन में उठने लगे थे, हालांकि मैं उस वक्त इनके जवाब किसी से पूछ नहीं सकती थी. इसका नतीजा ये हुआ कि मैंने खुद को उन सवालों का जवाब देना शुरू कर दिया. इस तरह मेरी दुनिया मुझ से शुरू होकर किताबों तक जाती, और वापस मुझ तक लौट आती. हालत ये होती कि कई बार मेरी छोटी बहन खेलने के लिए मुझे आवाज़ देती रह जाती और मैं किसी किस्से में डूबी बस थोड़ी देर-थोड़ी देर कहकर उसे टालती रहती..

Scene 3 (2m 9s)

आज जब मैं खुद को देखती हूं तो सोचती हूं कि शायद इतनी जल्दी मुझे वो किताबें नहीं पढ़नी चाहिए थीं जो मेरी उम्र के बच्चों के लिए नहीं लिखी गई थीं. उतनी जल्दी मुझे दुनिया की पेचीदगी का पता नहीं चलना चाहिए था. शायद कुछ और वक्त मुझे मिलना चाहिए था - दुनिया को बच्चे की कच्ची निगाह से देखने को. फिर ये भी लगता है कि शायद मेरे लिए वही ठीक था, मेरी कहानी को ऐसे ही ढलना था. मेरे सपनों की नींव किताबों को ही बनना था..